फ़ुर्सतिया जी के निर्देश पर मेरी पोस्ट का हिन्दी भावानुवाद आप सब के लिये प्रस्तुत है:
नई दिल्ली:
दिल्ली के लक्ष्मण राव सड़क के किनारे ठीक हिन्दी भवन (ITO के पास) के बाहर चाय बेचते है.
लेकिन कुछ लोगों ही हिन्दी साहित्य के लिए राव के योगदान के बारे मे जानते है. उन्होंने कहा कि पिछले 37 वर्षों में कोई कम से कम 20 किताबें लिखी है. हालांकि राजधानी में लेखन दुनिया मे शायद ही उससे कोई एक चायवाला से बेहतर व्यवहार करता हैं,
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने राष्ट्रपति भवन में उनका नवीनतम उपन्यास " रेणु" पढ़ने के बाद उन्हे आमंत्रित किया.
राव का जुनून है लिखना, पर उसकी चाय की दुकान से ही घर चलता है. वह मात्र एक किशोर थे, मुश्किल से 18 साल के, जब उन्हो ने अपना पहला उपन्यास लिखा था। तब से राव ने राजनीति, सामाजिक मुद्दों, लोगों और जीवन पर लिखा है।
वह हिन्दी भवन के बाहर सड़क पर नौ बजे से सारे बर्तनो के साथ हर सुबह शुरु करते है तो वह अपने घर के लिए शकरपुर नौ बजे शाम को निकलते है। उनकी दैनिक कमाई? 100 रुपये और 150 रुपये के बीच कुछ भी। ’सड़क के किनारे’ से ’राष्ट्रपति भवन’,राव का यह एक सपना सच हुआ। राव कहते हैं ''ज्यादातर लोग विश्वास नहीं कर सकते है कि एक चायवाला किताबें लिख सकता हैं। शुरू में मुझे प्रकाशक भी नहीं मिला। मैं हिन्दी भवन के बाहर 15 साल के लिए पर बैठा पर किसी भी साहित्यिक समारोह के लिये वहां आमंत्रित कभी नहीं किया गया''।
वे कहते हैं "राष्ट्रपति से मिलना एक महान क्षण था। मेरा परिवार और मैं 15 मिनट के लिए उससे मिले। उन्होने मुझसे पूछा मैंने कैसे चाय बेचने के साथ लिखने को प्रबंधित किया। उनसे मिलकर काम को आज मात्र मान्यता मिल गयी''।
विदर्भ मित्र मंडल, बुद्धिजीवियों का एक समूह, जो राव के साथ जुड़ा हुआ है , ने पहले राष्ट्रपति को राव का काम प्रस्तुत किया था।
वे दिल्ली 1975 में आये और निर्माण स्थलों पर एक मजदूर के रूप में काम किया, ITO के पास तम्बाकू उत्पादों व चाय की अपनी झोंपड़ी की स्थापना से पहले विभिन्न ढाबो में बर्तन साफ किये। राव ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक बाहरी उम्मीदवार के रूप में से बी.ए. किया।
वह पहले से ही अपनी बीस मे से आठ पुस्तकें प्रकाशित कर चुके है और चार अन्य जल्द ही प्रिंट के लिए जाये गी. जब पुस्तकों के लिए एक भी प्रकाशक नहीं मिल सका था, तब वह स्वयं एक प्रकाशक बन गये और ’भारतीय साहित्य कला प्रकाशन’ शुरू किया। राव कहते हैं ''आप को एक सजे कार्यालय की जरूरत नहीं है। बस अपना काम संकलन और मुद्रण के लिए कोई प्रेस में दे। प्रकाशक आगे अब आ रहे है, लेकिन मैं अपने आप सब कुछ संभाल सकता हु''।
राव अपनी किताबो का विपणन खुद भी करते है। ''मैं आमतौर पर साइकिल से विभिन्न स्कूलों और रोहिणी, सीलमपुर और अन्य क्षेत्रों के कॉलेजों में जाता हु और किताबें बेचने के लिए एक छोटी सी स्थापना भी की है। शिक्षक हिन्दी साहित्य में मेरी किताबें खरीदने मे दिलचस्पी लेते है। प्रकाशक मेरे लिए यह सब नहीं कर सकते''। वह अपने नियमित ग्राहकों के लिए 50% की छूट में अपनी किताबें बेचते है।
राव अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ रहते है। उनका छोटा बेटा एक B.Com. विद्यार्थी है, जबकि बड़ा बेटा सी.ए. का छात्र है। वे कहते है ''मेरा परिवार शुरू से चाहता था कि मै चाय की बिक्री पर ध्यान केंद्रित करू. , मैंने नौकरी खोजने के बारे में सोचा ही नहीं, क्योकि मै लेखक के रूप में जीना चाहता था. ऐसा लगता है किताबों के लिए मेरा जुनून ही है जो मुझे यहा तक लाया है''
3 comments:
साहब हम तो इनसे मिल भी लिए है ....और उनके हाथ की चाए भी पि चुके है.....उनसे मिलकर काफी अच्छा लगा था..
पर अफ़सोस ......मेरे भारत में हिंदी के लेखक की ये हालत .......
अरे वाह! हिन्दी अनुवाद कर दिया। बहुत खूब! शुक्रिया।
अच्छा लगा ऐसी समर्पित शख्शियत के बारे में जानकर. नमन करता हूँ राव जी को.
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